स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद जिन हिन्दी भाषी राज्यों ने हिन्दी को अपनाया उनमें बिहार का स्थान सबसे आगे है। यहाँ 1948 में ही देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी राजभाषा घोषित कर दी गई। सरकार की ओर से यह आदेश जारी किया गया कि भविष्य में सभी सरकारी सेवाओं में नियुक्ति के लिए हिन्दी का ज्ञान आवश्यक होगा। 1950 में बिहार ऑफिसियल लैंग्वेज ऐक्ट पारित हुआ और उसमें यह विहित किया गया कि 7 वर्षों के भीतर हिन्दी अंगरेजी का स्थान पूरे तौर पर ग्रहण कर लेगी। धीरे-धीरे अंगरेजी के स्थान में हिन्दी का प्रयोग शुरू होने लगा। हिन्दी को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने की योजना शीघ्र लागू करने में सरकार को समुचित परामर्श देने के लिए 1948 में एक हिन्दी-समिति का गठन किया गया। राज्य के निम्नलिखित हिन्दी अनुरागी और उच्चाधिकारी उसके सदस्य बनाए गएः-
स्वतंत्रता के बाद अनुवाद-कार्यालय का रूप एकदम बदल गया। इस पर नया और गुरूतर दायित्व आ पड़ा। इस दायित्व को दक्षता और विद्वता के साथ संभालने के लिये 1949 में हिन्दी जगत् के प्रख्यात विद्वान और चन्द्रधारी मिथिला काॅलेज, दरभंगा के हिन्दी प्रोफेसर श्री रामलोचन शर्मा ‘‘कंटक‘‘ को बिहार सरकार की ओर से बुलाया गया और अपर अनुवादक के पद पर आसीन किया गया। इसके अलावा, कई और नये पद सृजित कर अनुवाद-कार्यालय का समुचित विस्तार किया गया। राजकाज में हिन्दी की पूर्ण प्रतिष्ठा के लिए काल-सीमा 1957 रखी गई। अतः 1956 में सरकार ने अनुवाद-विभाग में पदाधिकारीयों और कर्मचारियों की संख्या को बढ़ाकर 45 कर दिया। इसके कार्य के स्वरूप में भारी परिवर्तन हुआ। आगे सरकार के निर्णय के अनुसार गजट, बजट, विधानमंडल-प्रश्न आदि दैनन्दिन ढंग के सभी आसान काम सम्बद्ध विभाग स्वयं मूलतः हिन्दी में करने लगा और राजभाषा-विभाग का मुख्य कार्य हो गया हिन्दी में महत्वपूर्ण राजकीय साहित्य, जैसे कोड, मैनुअल, प्रशासनिक शब्दकोष आदि, तैयार करना। अनुवाद को अधिकाधिक परिशुद्ध, प्रांजल और प्रामाणिक बनाने के लिए अनुवाद-कार्य की त्रिस्तरीय प्रक्रिया अपनाई गईः प्रथम स्तर में अनुवाद, द्वितीय में पुनरीक्षण और तृतीय में परिमार्जन। तदनुसार अराजपत्रित पद भी तीन स्तरों के सृजित हुए। प्रशिक्षण-केन्द्र, जो केवल सचिवालय में था प्रमंडल-मुख्यालयों में भी खोले गए। टिप्पण एवं प्राारूपण परीक्षा अनिवार्य की गई। निरीक्षण की भी व्यापक व्यवस्था की गई। आगे चलकर उपर्युक्त ढांचे में और भी कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। 1961 में विभाग का और विस्तार किया गया। 1965 में तत्कालीन मुख्य सचिव ने राजभाषा विभाग के पदाधिकारीयों के काम और हैसियत पर ध्यान रखते हुए उनका पदनाम बदल देने की सम्मति दी। फलतः अनुवादक, उप-अनुवादक और अपर उप-अनुवादक के पदनाम क्रमशः निदेशक, उप-निदेशक और अपर उप-निदेशक हो गए। वर्तमान रूप वेतन-पनुरीक्षण-समिति (1962) ने राजभाषा-विभाग को तकनीकी विभाग के समकक्ष माना तथा उसके लिए विशेष प्रकार के वेतनमान और ढांचे की सिफारिश की। 1969 में, उक्त सिफारिश के लागू होने के फलस्वरूप, विभाग का रूप बहुत बदल गया और इसके इतिहास में एक नये अध्याय का आरंभ हुआ। अब यह मंत्रिमंडल सचिवालय के अधीन एक निदेशालय हो गया। उस समय, अर्थात् 1969 ई० में कुल 75 पदाधिकारी और कर्मचारी थे, जिसमें 10 राजपत्रित और 65 अराजपत्रित थे। 1973 ई० के पूर्वार्द्ध तक लगभग यही स्थिति बनी रही। 1977 में सरकार के निर्णय के अनुसार इसे स्वतंत्र विभाग का रूप दे दिया गया | 27 मई 1953 को राज्य सरकार ने डा० लक्ष्मीनारायण सिंह ‘‘सुधांशु‘‘ की अध्यक्षता में एक हिन्दी प्रगति-समिति गठित की, जिसे सरकारी कार्यालयों में हिन्दी के प्रयोग में हुई प्रगति का पुनर्विलोकन करने और हिन्दीकरण की दिशा में सुझाव देने का काम सौंपा गया। बाद के दिनों में हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार इसके अध्यक्ष बनाये जाते रहे हैं। इस प्रकार राजभाषा विभाग स्वतंत्र रूप से हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं विकास के लिए सतत् प्रयत्नशील रहा। इसी बीच मंत्रिमंडल सचिवालय विभाग अधिसूचना संख्या-1R-02/2007-602, दिनांक-20.03.2007 के द्वारा ‘राजभाषा’ मंत्रिमंडल सचिवालय विभाग के अंतर्गत आ गया।